फिल्म में एक दृश्य है जहां एक छात्र आईएएस नहीं बन पाता है। उसे कहा जाता है कि वह झूठ को भी सच की तरह बोलता है, और उसे न्यूज रिपोर्टर बनने की सलाह दी जाती है। लेकिन विधु विनोद चोपड़ा जी, मैं सच को सच की तरह ही बोलूंगा। और सच यह है कि आपकी फिल्म ने मेरी आंखों को लाल कर दिया है। बहुत समय बाद महसूस हुआ कि मैंने एक शानदार फिल्म देखी है। यह विश्वासनीय रूप से इस वर्ष की अब तक की सबसे अद्वितीय फिल्म है। विक्रांत मैसी और आप सभी को नेशनल अवॉर्ड मिलना चाहिए। अब आप इस न्यूज रिपोर्टर के सच को कैसे लेंगे, कृपया बताएं
यह कहानी चंबल के निवासी मनोज की है, जो एक अत्यंत गरीब परिवार से ताल्लुक रखता है। उसके पिता की नौकरी चली जाती है क्योंकि वे ईमानदार होते हैं। घर में खाने की तकलीफ होती है। मनोज 12वीं कक्षा में फेल हो जाता है क्योंकि उस वर्ष स्कूल में एक ईमानदार पुलिस अधिकारी की वजह से चीटिंग नहीं हो पाती। मनोज अब उसी अधिकारी की तरह बनना चाहता है, और वह अधिकारी उससे कहता है कि अगर तुम्हें मेरे जैसा बनना है तो चीटिंग बंद करनी होगी।
तब मनोज चीटिंग बंद कर देता है और उसका सफर शुरू होता है, हालांकि उसे यह नहीं पता कि आईएएस क्या होता है। इस सफर में वह पहले ग्वालियर जाता है, फिर दिल्ली के मुखर्जी नगर पहुंचता है। क्या मनोज आईपीएस बन पाता है, और अगर वह बनता है तो कैसे बनता है, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखने के लिए थिएटर जाना होगा। और अगर किसी का सपना आईएएस या आईपीएस बनने का हो, तो उसे साथ ले जाएं, उसके सपनों को उड़ान मिलेगी।
12th फ़ैल कैसी है फिल्म?
फिल्म देखने के बाद महसूस हुआ कि अगर यह कुछ साल पहले प्रदर्शित हो गई होती, तो हम भी आईएएस की तैयारी कर लेते। यह फिल्म आपको भावुक बनाती है, प्रेरित करती है और मनोज के साथ एक अद्वितीय यात्रा पर ले जाती है। पहले ही दृश्य से यह फिल्म आपको अपने में बांध लेती है। जब मनोज की जीवन में एक लड़की आती है, तो आपको लगता है कि इसकी क्या आवश्यकता थी, लेकिन बाद में आपको लगता है कि हां, इसकी आवश्यकता थी। यह फिल्म बहुत सरल तरीके से फिल्माई गई है, ना कोई भव्य सेट है, ना कोई धमाकेदार संगीत, लेकिन फिर भी यह आपको गहराई से छूती है, और यही इस फिल्म की विशेषता है।
इस फिल्म की एक्टिंग की बात करे तो
विक्रांत मैसी ने इस फिल्म के माध्यम से यह साबित कर दिया है कि वे जितने शानदार अभिनेता हैं, वे उससे भी अधिक हैं, और उन्होंने दिखाया कि एक्टिंग कैसे की जाती है। अगर कोई एक्टिंग की कार्यशाला होती है, कोई ज्ञान होता है, कोई मापदंड होता है, तो विक्रांत यहां वे सभी मापदंड पूरे करते हैं। एक गांव का डरा हुआ लड़का, झुके हुए कंधों के साथ, आंखों में सपने, कभी लाइब्रेरी में धूल साफ करता है, कभी चाय बेचता है, कभी 15 घंटे चक्की में आटा पीसता है। यहां विक्रांत आपको एक्टिंग का वह मापदंड दिखाते हैं जो अब शायद देखने को नहीं मिलता है। इस फिल्म के लिए उन्हें हर वह पुरस्कार मिलना चाहिए जो उत्कृष्ट अभिनेताओं को दिया जाता है।
यह फिल्म उनके करियर में निश्चित रूप से एक नई दिशा तय करेगी। मेधा शंकर ने विक्रांत की प्रेमिका का भूमिका निभाई है। यहां विक्रांत के साथ वे पूरी तरह से मेल खाती हैं और बहुत अच्छी भी लगती हैं। उनकी अभिनय क्षमता बहुत प्रभावशाली है। प्रियांशु चटर्जी ने पुलिस अधिकारी का भूमिका निभाया है और उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता है। अनंत विजय ने विक्रांत के मित्र का भूमिका निभाया है। उन्हें अपने पिता के दबाव में आईएएस की तैयारी करनी पड़ती है और वे भी अपना भूमिका शानदार तरीके से निभाते हैं। आईएएस की तैयारी करवाने वाले विकास दिव्यकीर्ति भी फिल्म में दिखाई देते हैं और वे उत्तरोत्तर रूप से प्राकृतिक लगते हैं, जैसे हम उन्हें सोशल मीडिया पर देखते हैं। उन्होंने अपना ही भूमिका निभाया है और ऐसा नहीं लगता कि फिल्म के कैमरे से उन्हें कोई समस्या हुई है।
इस मूवी को सफल बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण कलाकार
विधु विनोद चोपड़ा ने इस फिल्म का निर्देशन किया है और उनकी फिल्म पर मजबूत पकड़ रही है। उन्होंने ध्यानपूर्वक निर्धारित किया है कि किसे कहां और कितना इस्तेमाल करना है, और किससे कितना काम करवाना है। फिल्म में प्रेम की कहानी क्यों शामिल की गई है, यह पहले आधे में थोड़ा अस्पष्ट होता है, लेकिन दूसरे आधे में निर्देशक साहब इसे स्पष्ट कर देते हैं। यह फिल्म विधु विनोद चोपड़ा की सबसे शानदार फिल्मों में गिनी जाएगी।
इस मूवी में शानदार सिनेमेटोग्राफी देखा गया
फिल्म की दृश्यावलियां बहुत सम्पन्न हैं। गांव और देहात ड्रोन कैमरे के माध्यम से बहुत सुंदर दिखते हैं। रंगराजन रामबद्रन ने मुखर्जी नगर की सड़कों को भी जीवित कर दिया है। संघ लोक सेवा आयोग के अंदर और बाहर के दृश्य उनकी कलात्मक सिनेमैटोग्राफी की उच्चता को दर्शाते हैं। विधु विनोद चोपड़ा ने जसविंदर कोहली के साथ मिलकर फिल्म का संपादन स्वयं किया है, और समस्या तब उत्पन्न होती है जब वे मनोज की दुर्दशा को दिखाने के लिए अधिक समय लेते हैं। अगर फिल्म केवल 90 मिनट की होती, तो यह निश्चित रूप से ‘चार सितारा’ फिल्म हो सकती थी। फिल्म का संगीतिक पक्ष कमजोर है। स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा को मुखर्जी नगर में कुछ समय बिताना चाहिए था, ताकि उन्हें यह समझ में आता कि अब भी वहां का सबसे प्रिय गीत ‘लग जा लगे कि फिर ये हंसी रात हो न हो…’ ही क्यों है।